जगदीश्वर भोर में टहलते हुए घाट की ओर निकल आये . देखा एक व्यक्ति पूर्व की ओर मुख किये पाषण-प्रतिमा बना बैठा है !! पूछा - "कौन हो तुम ?"
" लोग मुझे कवि जानते हैं ." उसने कहा.
" अच्छा !! .... मैं जगदीश्वर हूँ ... जगदीश्वर , स्रष्टि को रचने वाला ."
" हूँ ..... लोग ऐसा ही समझते हैं ."
" लोग समझते है !!! तुम नहीं समझते !? ... सब मुझे परमपिता मानते है ... तुम ?"
जगदीश्वर को बुरा लगा .
" लोगों का मानना ही बड़ी बात है ." कवि बोला .
" तुम भी मान सकते हो .....मुझे खुशी होगी पुत्र ."
" रचनाकारों के बीच रिश्तेदारी महत्वपूर्ण नहीं होती है जगदीश्वर . "
जगदीश्वर कुछ कहना चाहते थे, लेकिन बोले नहीं .
----------------------