बुधवार, 27 मई 2015

घर किसका ?


जब घर खरीदने के इच्छुक यहां-वहां, आगे-पीछे सब देख कर कीमत कूत रहे थे तो मन विचलित होने लगा, बेचें या नहीं बेचें। शाम तक मन असमंजस में रहा तो जगदीश्वर  के द्वार पर पहुंचे। कहा कि घर बेचना है लेकिन मन में अजीब सी उहापोह मची हुई है।
‘‘ घर ! किसका ?’’ जगदीश्वर ने पूछा ।
‘‘ मेरा घर। बेचना है।’’
‘‘ तुम्हारा घर !! तुम्हारा घर कहां ?’’
‘‘ मेरा घर प्रभु, जिसमें मैं रहता हूं।’’
‘‘ उसमें तो और भी कई प्राणी  रहते हैं। ..... कुछ पंछी, चीटियां, मकड़ी, छिपकली, चूहे, छछूंदर .....’’
‘‘ परिहास कर रहे हो जगदीश्वर।’’
‘‘ परिहास नहीं कर रहा। वो घर दूधवाले का भी है, सब्जी वाले, अखबार वाले का भी। रद्दीवाला, स्तरी करने वाला, सफाई करने वाला तमाम हैं जिनका वो ‘घर’ है। कामवाली बाई से पूछो, वो साफ कहेगी कि ‘मेरा घर है’। ’’
‘‘ सो तो ठीक है, लेकिन ....... ’’
‘‘ और तुम्हारे पुरखे भी तो रहते हैं उसमें। क्या उनका घर नहीं है ?’’
‘‘ आप मुझे भ्रमित कर रहे हैं जगदीश्वर ।’’
‘‘ तुमने पूछा इसलिए बता रहा हूं। ...... और सुनो, वो घर मेरा भी है। रोज अगरबत्ती लगा कर किससे प्रार्थना करते हो ?’’
‘‘ फिर .... !?’’
‘‘ तुम अपना घर बेच सकते हो, ये सामूहिक संपत्ती है। जाओ इसकी रक्षा करो। ’’ कह कर जगदीश्वर चुप हो गए।
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