बुधवार, 11 नवंबर 2015

विमान !!

                       
                     लाला धरमदास घबराए से मंदिर में दौडे़ आए, जगदीश्वर की ओर हाथ उठा कर बोले- ‘‘ ये क्या जगदीश्वर !! ..... मैंने हमेशा  आपकी सेवा की, कभी आपसे बड़ी बड़ी चीजें नहीं चाही। जब भी मांगा तो बस इतना कि अंत समय आ गया है, छोटा बड़ा एक विमान भेज देना और बुलवा लेना। ..... बस इतना सा  ही !!.......  लेकिन ये क्या मजाक है !! ’’
                     ‘‘ हुआ क्या ?! बड़े परेशान लग रहे हो लाला!!’’ जगदीश्वर ने पूछा।
                    ‘‘ जांच में पता चला है कि मुझे कैन्सर है !! मैंने विमान की कामना की थी और आपने ये क्या दे दिया ?! ...... जानलेवा बीमारी !!’’
                    ‘‘ विमान तो यही है लाला .... तुम्हारी समझ का फेर है बस ।’’ जगदीश्वर मुस्कराए।
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मंगलवार, 18 अगस्त 2015

जगदीश्वर का भाग्य !!

                 
     जगदीश्वर के सामने दो  बूढ़े रोज शाम दर्शन  करने आते हैं।दर्शन  तो ठीक है, शिकायतों का अंबार लगाते हैं। जगदीश्वर  को दोषते हैं, कभी किस्मत को कोसते हैं। हमेशा  अपने दुःख-दर्द का रोना।
                       बात उनदिनों की है जब उत्तराखण्ड का प्रलय  हो चुका था। हजारों लोग फंसे, सैकड़ों लापता हुए। कष्ट इतने कि सुनने वालों के प्राण लप्प-धप्प करने लगें। टीवी पर खबरें और दृष्य देख कर तो जान ही सूख गई। 
                    शाम को दोनों आए। बोले- ‘‘ हे जगदीश्वर  तेरा लाख लाख शुक्र  है, हमें वो सब नहीं भोगना पड़ा। तुम्हारे कारण हम यहां सुरक्षित और सुखी हैं। हम सौभाग्यशाली हैं। हम अपनों के साथ हैं, परिवार में हैं। सब कुशल है, कृपा है तुम्हारी। ऐसा ही बनाए रखना प्रभु। ’’
                      उनके जाने के बाद जगदीश्वर देवी से बोले - ‘‘ मैंने तो कुछ भी नहीं किया !! फिर भी लोग मेरे कारण अपने को दुःखी और कुछ अपने को सुखी महसूस कर रहे हैं !!
                   देवी क्या कहतीं, बोलीं-‘‘ कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए ये अफवाह फैला रखी है कि आपकी की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता है।’’
                     ‘‘ किन्तु ये अफवाह है, षड़यंत्र है। ..... तुम तो जानती हो देवी !’’
                    ‘‘ भाग्य के लिखे का आप स्वयं भी क्या कर सकते हो जगदीश्वर  ।’’
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बुधवार, 27 मई 2015

घर किसका ?


जब घर खरीदने के इच्छुक यहां-वहां, आगे-पीछे सब देख कर कीमत कूत रहे थे तो मन विचलित होने लगा, बेचें या नहीं बेचें। शाम तक मन असमंजस में रहा तो जगदीश्वर  के द्वार पर पहुंचे। कहा कि घर बेचना है लेकिन मन में अजीब सी उहापोह मची हुई है।
‘‘ घर ! किसका ?’’ जगदीश्वर ने पूछा ।
‘‘ मेरा घर। बेचना है।’’
‘‘ तुम्हारा घर !! तुम्हारा घर कहां ?’’
‘‘ मेरा घर प्रभु, जिसमें मैं रहता हूं।’’
‘‘ उसमें तो और भी कई प्राणी  रहते हैं। ..... कुछ पंछी, चीटियां, मकड़ी, छिपकली, चूहे, छछूंदर .....’’
‘‘ परिहास कर रहे हो जगदीश्वर।’’
‘‘ परिहास नहीं कर रहा। वो घर दूधवाले का भी है, सब्जी वाले, अखबार वाले का भी। रद्दीवाला, स्तरी करने वाला, सफाई करने वाला तमाम हैं जिनका वो ‘घर’ है। कामवाली बाई से पूछो, वो साफ कहेगी कि ‘मेरा घर है’। ’’
‘‘ सो तो ठीक है, लेकिन ....... ’’
‘‘ और तुम्हारे पुरखे भी तो रहते हैं उसमें। क्या उनका घर नहीं है ?’’
‘‘ आप मुझे भ्रमित कर रहे हैं जगदीश्वर ।’’
‘‘ तुमने पूछा इसलिए बता रहा हूं। ...... और सुनो, वो घर मेरा भी है। रोज अगरबत्ती लगा कर किससे प्रार्थना करते हो ?’’
‘‘ फिर .... !?’’
‘‘ तुम अपना घर बेच सकते हो, ये सामूहिक संपत्ती है। जाओ इसकी रक्षा करो। ’’ कह कर जगदीश्वर चुप हो गए।
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