शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

* बहुमुखी


              वे जिससे मिलते उसी के हो जाते हैं । कांग्रेसियों के आगे वे गांधी से गांधी  तक बिछ पड़ते हैं । भाजपाइयों के सामने जाते हैं तो लगता कि सजिल्द वेद-पुराण हो गए और न केवल मंदिर वहीं बनाएंगे बल्कि पहली पूजा भी वही करेंगे । कामरेडों के समक्ष ‘मार्क्स -चालीसा’ का इतना जाप करते कि वे बिना बात ‘जो हमसे टकराएगा , मिट्टी में मिल जाएगा’ चीखने लगते । अमीर के सामने स्वर्णाभूषण से चमकते, तो गरीब को देख दयावंत हो उठते । वे गीली मिट्टी  की तरह हैं , जो उन्हें छू देता उसी के हाथ के निशान  उन पर दिखने लगते । न उनका रंग है न ही कोई आकार । वे जल की तरह जिस बरतन में गिरते वैसे ही बन जाते हैं ।  सामने पड़ जाए तो पत्नी को प्रेम करते हैं लेकिन प्रेमिका की याद आते ही उसके हो जाते हैं । प्रेमिका अब साठ पार कर चुकी है, किन्तु छुपके-चुपके अब भी दोनों में बातें होतीं है । उसके बच्चों और नाती-पोतों की चर्चा करते हैं तो समझते हैं कि उन्हीं के हैं । इधर उनके बच्चे और नाती-पोते तो उनके हैं ही । हरेक के लिये उनके पास एक मुख है । वे बहुमुखी हैं । उनका कोई एक साफ चेहरा आज तक नहीं बन पाया है ।  जैसा कि जगदीश्वर, वो सबका है , इसीलिये किसीका नहीं है ।
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