"आत्मा का पुर्जन्म अभी नहीं हुआ है। वह अभी भी एक पेड़ पर लटक रही है वर्ष भर से ।" पंडित जी ने पोथी पन्ने पलटते हुए कहा।
"लेकिन मृत्यु के बाद के सारे कराज तो आपने करवा दिए थे!!" प्यारेलाल बोले।
"इसलिए तो भटक नहीं रही है। पेड़ पर लटकी है आराम से।"
"कुछ चूक रह गई होगी। जवान मौत का विधान जटिल होता है।" घर की बुजुर्ग महिला ने पंडित का समर्थन किया।
"आप ठीक कह रही हैं माता जी। "
"अब क्या करें पंडित जी?" प्यारेलाल चिंतित हुए।
"गाय और बछड़े का दान लगता है ऐसे में ..."
प्यारेलाल गाय और बछड़े के दाम पर विचार करने लगे।
"आत्मा कहीं भी अटकी हो तो गाय से वैतरणी पार करवा देने का विधान है। आगे जैसी आपकी इच्छा।"
" जो भी विधान हो उसे पूरा तो करवाना ही पड़ेगा पंडित जी।" बुजुर्ग महिला ने कहा।
" और कोई खर्चा तो नहीं है? "
" गोदान विधि पूर्वक होगा, ग्यारह या इक्कीस ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र, आसन, ताम्रपात्र और मुद्रा आदि देने के साथ गोदान करने का विधान है। गाय में ईश्वर का वास है सो दान के पहले उसे छप्पन भोग खिलाना होगा। यही भोज ब्राह्मण देवता की ग्रहण करेंगे।" विधान सुन कर प्यारेलाल और चिंतित हो गए।
"उनको लटकते हुए छोड़ तो नहीं सकते ना। " अंदर से एक महिला स्वर सुनाई दिया।
" गाय को अच्छा चारा खिला दे तो नहीं चलेगा? " प्यारेलाल ने छप्पन भोग से बचने का प्रयास किया।
" चारा गाय खा लेगी ब्राह्मण कैसे खाएँगे !!... एक थाली में थोड़ा-थोड़ा रखकर निमित्त रूप में खिलाया जाएगा। गाय को भरपेट खिलाने की आवश्यकता नहीं है।"
" किस दिन यह सब होना है पंडित जी? " बुजुर्ग महिला ने पूछा।
" जितना शीघ्र हो सके कर ले पंद्रह दिन बाद ग्यारस है,उस दिन कर लीजिए।"
प्यारेलाल हां और ना के बीच अभी भी झूल रहे हैं।
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